रिश्तों पे जमी बर्फ़ गलाने में लगी
हूँ ....
ज़ख्मों को अभी फिर से सुखाने में
लगी हूँ ;
.
तन्हाई के आगोश में कल तक मैं रही
थी...
अब भीड़ से मैं हाथ मिलाने में लगी
हूँ ;
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मुमकिन न हुआ मुझसे मेरे दिल का
सँवरना...
इस वास्ते मैं घर को सजाने में लगी
हूँ ;
.
दिन रात वो जीवन पे मेरे बोझ बने
हैं...
बीते जो तेरे साथ भुलाने में लगी
हूँ ;
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इस दौर की बेजान मुहब्बत में
वफ़ाएँ...
किस शै पे यकीं ख़ुद को दिलाने में
लगी हूँ ;
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पूछे न कोई हाल भी 'तरुणा' का यहाँ अब...
कुछ और हूँ कुछ और दिखाने में लगी
हूँ..!!
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......................................................’तरुणा’...!!!
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