लोग अनजाने भी मुझको जाने-पहचाने
लगे ...
मुस्कुराए इस तरह बरसों के याराने
लगे ;
.
मदभरी नज़रों से देखा दिल को धड़काने
लगे ..
किस तरह वो दिल के वीराने को महकाने
लगे ;
.
शम्स को क्या दोष दें हम इस कड़कती
धूप का..
जब ये सावन के ही बादल आग बरसाने
लगे ;
(शम्स-सूरज)
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ज़िंदगी की तल्ख़ियाँ जिनको रुला पाईं
न थीं ..
ज़ख़्म सहलाये जो उनके अश्क बरसाने
लगे ;
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चारदीवारी में जिनके साथ गुज़री
ज़िंदगी...
बाद मुद्दत के अचानक क्यूँ वो
अनजाने लगे ;
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ढेर में थी राख के मैं एक चिंगारी
दबी.....
साज़िशें कर के हवा से मुझको सुलगाने
लगे ;
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पास जिनके मैं गई ‘तरुणा’ मदावे के लिए...
वो ही चारागर मुझे ख़ुद ज़ख़्म दिखलाने
लगे...!!
(मदावा-इलाज, चारागर-डॉक्टर)
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.......................................................'तरुणा'...!!!
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