Monday, December 31, 2012

उपकार तुम्हारा.....



नही भूलूंगी कभी...मैं...
जो दिया हैं...तुमने मुझको...
क्या-क्या नही दिया......
मेरे अधरों को सिखाया....मुस्क़ाना....
धड़कनों को....गीत गाना...
ज़िस्म की थिरकन.....और...
ये अनंत यौवन....भी...
देन हैं....तुम्हारी....तुम्हारे प्यार की....
सांसो की महक भी.....
चाल की लचक भी....
ये नज़ाक़त...नफ़ासत....ख़ुश्बू...
महसूस की हैं....तुमसे ही....

क्या हुआ जो...साथ-साथ....
दर्द भी किया....मेरे नाम....
दी कुछ....तड़प....कुछ क़सक..भी....
प्यार का हर रूप.....तो दिया....
जब बरसाए फूल....तो न क़ी....
शिक़ायत...कोई मैने.....
अब..काँटे हैं...तो भी शिक़वा क्यूँ हो..???
जब मिल के गाए थे...सुरीले नगमे....
तो अब अश्क़ो से...परहेज़ क्यूँ हो...???
मैं...कृतज्ञ  हूँ....तुम्हारी...
प्यार का हर भाव...हर रूप.....
सिखाया है....दिया है...तुमने मुझे....
और मैं...रहूँगी...चिर कृतज्ञ.....
भूलूंगी न उपकार तुम्हारा....
एहसान तुम्हारा.....प्यार तुम्हारा....
कभी भी....कहीं भी.....
.....................................तरुणा|| 

Sunday, December 23, 2012

सिर्फ़ एक वादा.....


उस 5 वर्ष की बच्ची का...प्रश्न...
ये रेप क्या होता है...आंटी...
स्तब्ध रह गयी मैं....
भौचक्की सी....सोचती रही...
क्या बताऊँ इसे...क्या कहूँ....
क़ि क्या होता है...ये बलात्कार...
कैसे बताऊँ क़ि...सदियों से नारी...
झेलती रहीं हैं.....इस अभिशाप को....
हर रोज़...लाखों घरों में होता है..ये...
अपने ही पतियों के हाथों...रात के अंधेरें में...
शर्मसार होती हैं...मासूम बच्चियाँ..रिश्तेदारों के हाथों..

कैसे बताऊँ क़ि बहुत जल्द...समझ जाएँगी..
तू....इन बातों का मतलब...
जब कच्ची उम्र में ही...घर से निकलने पर..
सुनने पड़ेंगें..वो फ़िकरे...सड़कों...चौराहों में...
वो कुत्सित विचार...वो तीखी...घृणित निगाहें...
जब बार-बार छलनी करेंगी...तेरे ज़िस्म को...
जब अनचाहे स्पर्शों से....भीड़ में.. 
दो-चार...होना पड़ेगा तुझको...
और समय से पहले ही भूल जाएँगी...तू..
अपने मासूम बचपन को....
न चाहते हुए भी...होना पड़ेगा जवान...
बचाना पड़ेगा...खुद को...इस दुनिया से...
कैसे बताऊँ क़ि हर स्त्री...झेलती हैं ये...
बिना किसी कुसूर के...जुर्म के...

क्या आश्वस्त कर पाऊँगी...उसको...
क़ि तू नहीं..झेलेगी ये त्रासदी...
नही होगी दो-चार...इस सबसे...
मिलेगा तुझे एक भयमुक्त समाज़....
जहाँ जी पाएगी तू....अपने बचपन को...
निडर....निर्भीक....
नही होगी..जवान तू...समय से पहले...
नही जानना पड़ेगा...अर्थ....
छेड़छाड़...बलात्कार का....
क्या दे पाओगे..ये वातावरण..आप उसको..
कर पाओगे...ये वादा...
आज परचम उठा रहें हो... 
लड़ रहें हो...इक दामिनी के लिए...
पर स्वयं से....क्या कर पाओगे ये वादा...
क्या...सिर्फ़ इक वादा...??????
................................................तरुणा||

Wednesday, December 19, 2012

कविताएँ तीन....घटना एक....


निशान......

क्या होगा उसका....
भूल पाएगी कभी...वो..
अपने साथ बीते उस घृणित  हादसे को....
उस...अमानवीय घटना को...
मानवता को शर्मसार..करती उस वेदना को....
जिस्मानी घाव शायद....भर पाए...
आज नहीं....तो कल...
पर उन मानसिक चोटों से...क्या पाएगी वो निकल..
उबर पाएगी वो उस हादसे से.....
क्या था जुर्म...क्या कुसूर था उसका...
क्यूँ स्त्री होने की....पाई है सज़ा....
एक यही तो थी उसकी खता..
क्या भरेंगे कभी ये ज़ख्म...
मिटेंगे ये घाव...ये निशान...
क्या कभी भी.....   



पुनरावृत्ति.......

क्यूँ होती हैं हम...औरतें ही...
इस दुश्क्रत्य का शिक़ार...
जब...जहाँ...जो चाहे...क्या..
कर सकता है...बलात्कार....
टटोलना होगा हम...माओं को....
अपने-अपने सीनों को....
यहीं संस्कार दे रहें हैं....क्या..
इस देश के भावी नगीनों को....
कांपती नहीं...क्या रूह उनकी....
आत्मा..नही धिक्कारती....
उस स्त्री के चेहरे में...एक बार भी...
क्या अपनी...माँ...बहन...बेटी नहीं पुकारती...
मनुष्य क्या...राक्षस भी शर्मा रहें होंगे...
इस हवस की पराकाष्ठा से....
करती हूँ.....आवाहन उन माओं का...
मत लज़ाओं...अपनी कोख को.....
पुरूषों को नही..पैदा किया हैं..दरिंदों को...
बन जाओ फिर से..'Mother India'..
और स्वयं मिटा डालो इन नर-पिशाचों को...
रोक लो इस पुनरावृत्ति  को...
अपने ही बेटों की...इस दुश्वृत्ति को...
मिटा दो इस कलंक को.....


खबर....

चढ़ा दो सूली.....इन भेड़ियों को...
सबके आगे....सरेशाम.....
ये भावना...ये विचार आज...
जन-जन तक आंदोलित है...
पर क्या जीवित रख पाएँगे...हम इस क्रोध को..
अपने भीतर उमड़ते इस...आक्रोश को....
या नया अख़बार मिलते ही.....
पुरानी बासी ख़बर की तरह.....
इस हादसे को भूल जाएँगे...
फिर किसी नई...ख़बर पर....
चटखारे लगायेंगे......
अपने बच्चों क्या देंगे अच्छे संस्कार भी..
या दुनिया की खबरों पर करते रहेंगे विचार ही...
उबलता रहेगा...हमारा खून यूँ ही....
या बन के रह जाएँगे...बस एक मूक दर्शक ही...
सिर्फ़ एक मूक दर्शक.....

.....................................................तरुणा||

Monday, December 17, 2012

उड़ान....


कौन रोक पाया है परिंदे को...
विशाल अंतरिक्ष की ऊँचाइयाँ...नापने से...
उड़ान जो...एक छोर से दूसरे छोर तक....
फैली है....निर्बाध....स्वच्छन्द...
और वो खुश है...अपनी स्वच्छंदता में...
धरा को क्या हक़..क्या अधिकार...
क्यूँ बने बाधक...उसकी उड़ान में...
उड़ो...तय करो आसमान की सरहदों को...
कोई सीमा नहीं....कोई रोक नही....
हाँ....बस जब जाओ थक...
अपनी इन बेलगाम उड़ानों से...
काँपने लगें परवाज़ तुम्हारें....
जी चाहे सहारा लेने को....
तो आ जाना...मेरे पास...
मैं फ़ैलाएँ हूँ आज भी...अपनी बाँहें...
कर रहीं हूँ...इंतज़ार तुम्हारा...
लौटोगें तो तुम..ज़रूर एक दिन....
जब तुम तय करोगे..स्वयं...
अपनी सीमा...अपना दायरा...
और मैं खड़ी हूँ...प्रतीक्षा में....
तुम्हारे उस विश्राम को...
सहारा देने के लिए...
आ जाओ....शांति की खोज में...
विश्रान्ति को पाने के लिए....
आ जाओ......
..........................तरुणा||

Wednesday, December 12, 2012

तुम्हारा संगीत.....


वक़्त बीता भी नही था...ज़रा सा...तुम आ गये..
आ गये फिर से तुम पास....बहुत पास मेरे....
मेरी नस-नस को सुनाने...गीत कोई....
नई लय...ताल से बद्ध.....संगीत कोई...
हर वक़्त वो मोहब्बत भरे.....सुरीले नग्में...
क्यूँ गुनगुनाते हो कानों में...नशीले नग्में...
हर वक़्त दौड़तें हैं...रगों में.....
शहनाई बजाते हुए...वही गीत...
चाहती हूँ कि सुनू....मैं भी....
तेरी साँसों का लरजता संगीत....
राग और ताल से लयबद्ध वो...मधुर सप्तक...
जिसको सुन....तेरी बाँहों में सो जाऊँ..थककर...
वो तरंगें...वो तराने....वो मौसीक़ी...की झलक...
मुझको पाने को बेताब....तेरी साँसों की महक...
बार-बार मुझको....छू-छू के चली जाती हैं...
तेरे नग्मों की सदा...मुझको भी तड़पाती हैं...
कैसे रोकूँ....मैं अपनी मचलती धड़कन....
गुनगुनाते हुए जिस्म की...अनछुई सिहरन...
लगता है अब न इसे....दूर मैं कर पाऊँगी...
तेरे संगीत की लहरों मे...मैं भी बह जाऊंगी...
मैं भी बह जाऊंगी......
..................................................तरुणा||

Monday, December 10, 2012

मेरा छोटा सा आकाश....


कौन तय कर पाया है?????
आसमानों की सरहदों को....
न मुझ जैसी धरा...न कोई चाँद सितारा...
फैला है....तुम्हारा वज़ूद.....
न जाने...कहाँ कहाँ तक...
न मैं जान पाई हूँ..न कोई और..
तुम्हारा विस्तार है...अनंत तक..
न कोई ओर है...न छोर...
तुम हो अनंत..शाश्वत और विस्तृत...
मैं एक बहुत छोटी सी धरा...
चाहा नहीं की नापू कभी..तुम्हारे..
विस्तार को....दामन को...
मैं तो बस खुश हूँ..अपने हिस्से का..
आकाश पा कर.....
और...सच कहूँ....तो वही हैं..
मेरे लिए पूरा विस्तार...पूरा आकाश..
जो मुझको ढक लेता है...
पूरा का पूरा...अपने दामन में..
समेट लेता है..अपनी बाँहो में..
मेरी गहराइयों को....
और मैं...उस टुकड़े-टुकड़े आकाश को ही...
बस...मानती हूँ....जानती हूँ....
पूरा अंतरिक्ष विशाल..न मेरा था कभी..
तुम समेटों चाहे..हज़ारों मुझसी धराओं को..
अपने अंदर...अपनी विशालता में...
मुझे तो मिल गया है.....
मेरा विस्तार...मेरा आसमान...मेरा आकाश..
बस...वही है मेरा...सिर्फ़ मेरा...
..........................................तरुणा||



Saturday, December 8, 2012

तुम्हारा शहर.....


मैं निकली हूँ...एक मदमाते सफ़र में...
मचलती..तड़पती..गुंजाती..डगर में...
तुम से मिलने की...बेचैनी है ये...
या अपनी किसी तमन्ना का हुज़ूम...
समझ न पाई हूँ..इसको...
पर दिल तो रहा है..मेरा झूम..

सूखे खेतों मे भी हरियाली है लगती...
कड़ी धूप भी...ठंडी छाँव में बदली...
हर जर्रा..अब रंगीन हो चला है...
ये किसकी डगर पे मेरा मन चला है...
बड़ी दूर से तेरी ख़ुश्बू...आने लगी है..
मुझको ये अब मदमाने लगी है...
ये कुछ पल की तड़प है..या जन्मों की है प्यास..
सारा माहौल बदल रहा है..अनायास...
जैसे-जैसे ये दूरी घटने लगी हैं...
नई प्यास दिल मे जगने लगी है..

तुम्हारा शहर अब अपना सा है लगता..
कि जैसे मेरा मन..यहीं तो था बसता..
वो सड़कें लगती हैं...तुम्हारी है बाँहे..
समेटें हैं मुझको तुम्हारी ही राहें..
ये ऊँचे मकां..जैसे लंबा क़द तुम्हारा...
हर ओर है..बस तेरा ही नज़ारा...
वो रास्ते के पुलों के खंभें..मुझको यूँ दिखते...
जैसे तुम लंबे डग भर आ..मुझसे हो मिलते..

वो यहाँ की हरियाली...मुलायम घास..
जैसे तुम आ गये हो और...पास..
ये घने बाग...वो बगीचे...
जैसे फैले हो...तेरे घर के दरीचे...
वो बाज़ारों की रौनके..वो गलियों की चहल-पहल...
जैसे तेरी महफ़िल में...फनक़ारों की टहल...
जो बीच में..एक नदी सी हैं...बहती..
सीधे मेरे दिल पे जा निकलती....

आई थी पहले भी...तुम्हारे इस शहर में..
पर ऐसी हंसी वादियाँ न थी...इसके मंज़र में..
सफ़र ये जैसे जैसे...हो रहा है ख़त्म...
पास आते जा रहे हैं..तुम और हम...
हर गली-कूचे...नुक्कड़...चौबारे से बात हुई..
बस दीदार हुआ न तेरा..न तुझसे मुलाक़ात हुई..
मैं आज तुम्हारे शहर से...कुछ इस क़दर गुज़री...
कि गुज़र रही थी...मैं कहीं..बस तुमसे ही...
बस तुमसे ही.....सिर्फ़ तुमसे ही...
सिर्फ़ तुमसे......
.....................................................तरुणा||     

Thursday, December 6, 2012

तुम ही....


आज फिर पहुँच गई वहीं....
कार उठा के अपनी.....
जहाँ मिले थे हम..एक बार यूँ ही...
पता था मुझे कि....
तुम होगे वहाँ नही.....
फिर भी न जाने क्यूँ पर..पहुँची वहीं...

पर वहाँ तो....तुम थे मौज़ूद...
हर चीज़...हर जर्रे में...हर दिशाओं...हर सू...में
हवाओं में तुम्हारी मादक ख़ुश्बू थी...
शाम में तुम्हारी....अंगड़ाईयाँ..
सूरज की लालिमा में भी थे तुम...
कुहासों में थी तुम्हारी....परछाईयाँ...

पत्तों की सरसराहट में...
लगती थी...तुम्हारी आवाज़...
सोचा था.... न होगे वहाँ तो...
दिल को दिला दूँगी...विश्वास..
जहाँ-जहाँ तक नज़र पहुँची...मेरी..
दिखते रहे बस....तुम ही तुम...
तुम को ही....जीती रही मैं बस...
खड़ी..खड़ी...यूँ ही..गुमसुम...
   
चले तो गये हो....बहुत दूर...
मेरी जिंदगी से तुम...
पर अब क्या...किससे...कैसे कहूँ???
जब दिखते हो...हर जगह...तुम ही...
बस तुम ही....सिर्फ़ तुम ही...
एक तुम ही............
.....................................तरुणा||

Tuesday, December 4, 2012

मेरे शब्द....


कल रात...फिर वही हुआ..
जो हो रहा है...कई रातों से..
सो जाता है..जब जग सारा..
तुम आ जाते हो...बातों बातों में..

कहाँ छुपी थी मुझमें...
वो ढेरों बातें....
वो अनकही सी मुलाक़ातें..
कहाँ था....भावनाओं का ज्वार....
वो उफनता...मचलता प्यार...

मैं कितनी...निशब्द थी...
कितनी अनसुनी थी...
न अपने ख़्वाबों की चादर...
कभी मैने बुनी थी...
मैं....सदियों से चुप थी...
कहीं अपने अंदर ही..गुम थी..

अब कितने रंग छलकनें लगें हैं...
मेरे जज्बातों को शब्द..मिलने लगें हैं...
रोज़ नये-नये भाव....
मन मे गुन्जित हैं होते..
वो चुप्पी...खो गई कहाँ...
थकी थी मैं...जिसे ढोते-ढोते..

एक मूक सी मूरत थी..मैं...
अब...वाचाल हो गई हूँ....
मैं...कितनी मुखर...
कितनी चंचल...हो गई हूँ..
अब ढेरों शब्द...मुझमे...
उमड़ने लगें हैं.....
मन के सारे तार...तुमसे...
जुड़ने लगें हैं.....

मेरे शब्दों को मिल गई हैं..
अब कविता....
मैं थी एक...बेजान बुत..
भर गई है...जिसमे...
जीवंतता....
....................तरुणा||   

Sunday, December 2, 2012

मेरा लहू....


मेरे हाथों में हैं ये क्या????
ये नही है...कोई रंग लगा....
लाल-लाल.......लहू सा....
ये सच में मेरा खून है....
जो बहा है....मेरे जिस्म से...
बार-बार......लगातार....
क्यूँकि.....आज फिर....
अपना क़त्ल कर दिया मैने...
कर दिया खून....अपने वजूद का...
मुझमें तेरे होने के.....हर सुबूत का...
हर रोज़.....क़त्ल करती हूँ मैं....
अपनी रूह को फ़ना...करती हूँ मैं..
रोज़ अपना लहू बहाती हूँ...
तुझको....अपने जिस्म से छुड़ाती हूँ...
फिर भी तुम रोज़.... जाते हो..
मुझको बहका के....मुझमें समाने...
बहते रहते हो.....मेरी रगों में हर घड़ी..
फिर वही काम....मैं दोहराती हूँ...
क़त्ल करती हूँ खुद ही....
खुद ही मरी जाती हूँ...
जाने कितना लहू बहाया है...
फिर भी... मैं मर नही पाई हूँ...
मेरे हाथों से रंग ये...उतरा हैं...
क्यूँकि....तू मुझमें अभी भी जिंदा हैं....
क़त्ल करती रहूंगी....बार-बार....
जब तक मरूँगी मैं....एक बार...
जाने वो दिन कब आएगा????
जब तू मुझसे जुदा हो जाएगा....
क्या मेरा लहू रंग लाएगा???
क्या?????????
...............................तरुणा||   

Friday, November 30, 2012

ये तन्हाईयां......


मुझे पता है..कि तुम भी...
मेरी तरह ही...जलते होगे....
कभी-कभी रातों को....
मोम बनकर...पिघलते ही होगे..
या फिर सर्द-गर्म...रातों मे अक्सर..
जागते हुए करवटें बदलते ही होगे...

मेरे हमनवां...मेरे हमसफ़र छुपा लो
किसी से भी....तुम दिल की बात 
पर मैं जानती हूँ कि दिल ही दिल मे
कभी यूँ ही तुम भी तड़पते तो होगे...
कभी-कभी कुछ याद करके तन्हाइयों मे अक्सर
आँसू तुम्हारी आँख से.....निकलते ही होंगे...

सुना करते आए थे हम आज तक ये..
शमा ही है जलती वही है पिघलती...
मगर अब तो तुम भी...उसी आँच पर ही
परवाने की तरह.....रोज जलते ही होगे...

खुदा जाने होगा क्या अंजाम अपना...
क्या होगा फ़ैसला इस तकदीर का....
यही सोच कर यूँ अकेले मे अक्सर....
मेरी तरह तुम भी सिसकते तो होगे...
सिसकते तो होगे............
.....................................तरुणा||

Thursday, November 29, 2012

ग़ज़ल.....


मैं थी एक...कोरा पन्ना....
न कोई शब्द लिखा था....
न कोई फ़लसफा........
तुम आए ऐसे...चुपके से..
दबे पाँव.....हौले-हौले...
ख़बर भी न हुई कि...कब....क्यूँ....
तुमने मुझमे ऐसा कुछ लिख दिया...
अब बन गई हूँ मैं...एक खूबसूरत ग़ज़ल...
सारी दुनिया चाहती है....गुनगुनाना जिसे..
पर मैं तो सिर्फ़...तुम्हारी नज़्म हूँ...
गुनगुनाओ...लिखो...पढ़ो....या सुनो...
हज़ारों बार......लाखों बार......
रोका किसने है...तुम्हें गुनगुनाने से..
या चाहो तो.....मिटा दो मुझको...
तुम्हारी ही लिखी.....शायरी हूँ मैं...
पर सच बताना कि क्या???
मिटा के भी...मिटा पाओगे मुझको???
मैं तो वो ग़ज़ल हूँ....जिसे तुम....
तन्हाई मे गुनगुनाओगे.....
जीवन भर गुनगुनाओगे....
पर कभी भुला न पाओगे....
..................................तरुणा||

Tuesday, November 27, 2012

प्यास.....


तुम न आये थे तो,
दिल मेरा वीरान था|
हर खुशी,हर उमंगों से
बिल्कुल अनजान था||
पर अब तुमने इस दिल में ,
एक अमिट प्यास जगा दी है|
एक सूनी झील में कोई 
हलचल मचा दी है|
क्या मुझे यूँ ही
सूने वन में भटकना होगा?
इस तपते रेगिस्तान में
यूँ ही चलना होगा?
या दीपशिखा बन जलना होगा?
मेरे महबूब एक बार,
सिर्फ़ एक बार
मुझे इन पहेलियों का
हल बतला दो|
इस वन से निकलने का
रास्ता दिखा दो|
इस सूनी झील की
हलचल को मिटा दो|
मुझे मेरा अंजाम
तो बता दो|
या फिर इन प्रश्नों का
उत्तर ही मिटा दो|
रास्ते की धूल हूँ,
धूल में मिला दो|
धूल में मिला दो||
..................तरुणा||

Monday, November 26, 2012

नामोनिशाँ


चल रही हूँ भीड़ में.......पर कोई हाथ नही मिलता....
इस तन्हा सफ़र में......किसी का साथ नही मिलता...

दास्तां हर एक गली की....हमको ज़ुबानी याद थी......
अब मुझे अपने ही घर का...नामोनिशाँ नही मिलता..

कल हज़ारों लोग बसते थे.....आस-पास दिल के मेरे......
आज एहसास होने का किसी के..मुझे कोई नही मिलता.

एक उमर जिनके इंतज़ार में....बिता दी मैने अब तलक..
अब मेरी बीमारी में उनको कुछ...वक़्त भी नही मिलता..

बिछड़े है हमसे अब तलक.....अपने पराए हर कोई........
इस खाली मकां में अब मुझे...अपना पता नही मिलता..

सुन कर करोगे आप क्या.....इस दर्द-ए-दिल की दास्ताँ.......
खुशियाँ तो बिछड़ी थी सभी..अब ग़म भी कोई नही मिलता.

अब ग़म भी कोई नही मिलता.......................................
अब गम भी कोई नही मिलता.......................................
...............................................................तरुणा||

Sunday, November 25, 2012

दरवाज़ा....

जिस दिन से तेरी यादों का,
दरवाज़ा बंद किया है मैने|
दिल ने चाहा तो बहुत था,
पर पलट के देखा न मैने|


तुम को जाने की जल्दी थी,
तब मेरी न कोई भी हस्ती थी|
अब वापस मुड़ कर क्या जाना,
जब रास्ता वो छोड़ दिया मैने|

दिन मेरे पिघलते रहतें है,
रातें भी जलती रहती है|
इन तपती-जलती चाहतों का,
एक शोर भी न सुना मैने|

गर कहीं जो तुम मिल जाओगे,
मुझको एक अजनबी सा पाओगे|
जो बीत गयी वो बात गयी,
उस पहचान को मोड़ दिया मैने|
...................................तरुणा||

Friday, November 23, 2012

मेरा नाम......


मरते - मरते मैं.......जी उठी हूँ फिर से.......
शायद ग़लती से.....मेरा नाम लिया है उसने|

अपने इस इश्क़ के....अंजाम से वाक़िफ़ थी मैं..
क्यूँ...मेरी डूबती कश्ती को.....थाम लिया उसने|

अब तलक....मुझको शिक़ायत नही थी..उससे कोई
क्यूँ....मेरी क़ब्र पे आ...मुझे बदनाम किया है उसने|

जीते जी..एक आँसू भी न बहाया...कभी मेरे लिए..
फूल रख कर..मेरी मौत को..नाक़ाम किया है उसने|
.............................................................तरुणा||

Thursday, November 22, 2012

इंतज़ार उनका..........


मन फिर बहक रहा है...
आने का वादा किया है...उन्होने..
और उनके आने के इंतज़ार में...

सारे रास्ते मुस्कुराते रहे....
दरवाज़े खनक-खनक जाते....
धड़कने लगी हैं....सीढ़ियाँ 
हवाएँ ये महकने लगी....
गुनगुनाने लगी हैं....वादियाँ..
रात जगमगाने लगी....
खिलखिलाने लगी हैं...सर्दियाँ....

दीवारें पिघलने सी लगी....
बज उठी हैं..घंटियाँ..
झनकने लगी हैं पायल मेरी....
छनकने लगी हैं चूड़ियाँ......
दमकने लगा है तन मेरा अब..
लपकने लगी हैं बिजलियाँ.....
भीगने लगी हूँ तरबतर मैं....
ख़्यालों की चली हैं पुरवाईयाँ....

रात सरकने लगी है धीरे-धीरे.....
तरसने लगी हैं तनहाईयाँ....
मैं भी चटकने लगी अब....
शोर मचाने लगी हैं सिसकियाँ....
दरवाज़े चौंक-चौंक गये.....
रोने लगी है अब खिड़कियाँ....
बदलने लगा है सारा समा.....
न जाने क्या थी ग़लतियाँ????

आने का वादा किया था उन्होने...
हम इंतज़ार करते रहे...करते रहे....
रात सरकती रही......
और मैं जागती रही.....
जागती रही......रात-रात भर.......
उनके आने के इंतज़ार में.......
................................तरुणा||    

Wednesday, November 21, 2012

चाँद रात...........


चाँद को देख आज फिर...दिल ने है ली अंगड़ाई.....
वो प्रियतम की याद ने..फिर फूलों की सेज सजाई..

बात उस रात की है.....जब हम तुम थे संग-संग
जब प्रेम की चाँदनी से....भीगा था मेरा अंग-अंग
जब आँखों ही आँखों में....बुने थे कुछ सपने....
जब धड़कनों ने गुनगुनाए...थे अनसुने से नग्मे 
जब साँसों की थरथराहट......में डूबने लगे थे...
और होंठों की कपकपाहट.....में मिलकर बहे थे
ना जाने कितनी बातें.....बिन बोले कही थी...
अंजाने सफ़र में मैं....तुम संग चली थी....
प्रिया और प्रियतम.....एक दूजे में खोकर...
लगे बाँधने कुछ......बंधन नये थे........
जब चाँद मुस्कुराया था......और तारे हँसे थे
सुरों से हमारे......नये गीत बज उठे थे...

और आज स्याह रात में..हूँ मैं बिल्कुल अकेली
बस यादें है तुम्हारी....और तन्हाई सहेली....
कमजोर था क्यूँ इतना....वो हमारा जुड़ाव
बहुत पीछे छोड़ आए....हैं हम वो पड़ाव....
वो होंठों के नग्मे.....निशब्द हो गये क्यूँ?
वो रिश्ता..वो बंधन.....अनाम रह गये क्यूँ?
है चाँद आज रात भी.....और तारे हैं चंचल
पर दिल के तार मेरे....क्यूँ गये हैं आज रात जल

अंतर इन दो रातों का....कभी मिट सकेगा क्या?
हमारे प्यार का फिर....दिया जल सकेगा क्या?
है दोनो ही रातें......स्याह और अकेली....
पर एक है अमावस तो....दूजी वधू नवेली
पुकारता है ये दिल....तुम एक बार आओ
अंधेरी रात को मेरी....तुम फिर से सजाओ
इन दोनो का अंतर....तुम फिर से मिटाओ
ना अपनी प्रिया को....तुम इतना सताओ..
ना इतना सताओ........ना इतना सताओ...
.............................................तरुणा||

Tuesday, November 20, 2012

तेरी आवाज़


साँसे जिस्म का साथ...छोड़ने ही वाली थीं... 
रूह मेरी मुझसे जुदा बस होने ही वाली थी..
नज़रों में था बड़ा अज़ीब सा.....सूनापन..
जैसे प्यासा हो कोई...मरुवन.....
युगों-युगों से......जन्मों-जन्मों से...

ऐसे मे ये कैसे हुआ ????
हर निष्प्राण चीज़ में स्पंदन हुआ..
साँसे फिर जिस्म मे समाने लगी..
रूह फिर अपना वजूद पाने लगी...
तपते मरुवन मे...बारिशें हुई झमाझम...
निगाहों का सूनापन..बन गया वृंदावन....

तेरी वो एक..आवाज़..एक आवाज़..ऐसे आई..
कि जैसे नीरव वन मे बज उठी हो शहनाई...
मन-वीणा के झंकृत हो गये तार.....
सारे आलम में बजने लगे सितार....
बस तेरी वो......आवाज़.............

जिसने मेरा नाम पुकारा है......
मेरे डूबते जीवन को उबारा है... 
दौड़ने लगा रगों में...फिर लहू ऐसे..
बस मे अब तक थी मैं...तेरी आवाज़ के जैसे..
वो आवाज़........वो एक आवाज़......बस वो ही आवाज़...
...................................................................तरुणा||

Monday, November 19, 2012

अंजाना सफ़र


दिल अंजाने सफ़र में...अब चलने लगा है....
तुम्हारी धड़कनों में कुछ-कुछ..रमने लगा है|

हो जाता है परेशान.....तुम से दूर जाते ही..
अब हर पल राह तुम्हारी...ये तकने लगा है|

तुम ख्वाबों में आते हो..वापस भी चले जाते हो..
तुम बिन करवटें बदलतें हुए....ये जगने लगा है|

जुस्तुजू न थी कोई...चाहतें थी न अब तक....
फिर क्यूँ मिलन की आरज़ू में...खिचनें लगा है|

आए हज़ारों खरीदार....ले के तोहफें अनमोल.....
हुआ क्या है जादू कि बिन मोल बिकने लगा है||

.............................बिन मोल बिकने लगा है||
......................................................तरुणा||

Sunday, November 18, 2012

अधूरी जिंदगी...........


पूरी तरह से तुम से दूर मैं, हो न पाई हूँ कभी
कुछ तुममें जिंदा हूँ और कुछ खुद मैं बाकी हूँ|

दिल की किताब को जो पढ़ पाते तो समझतें,
कुछ तुममें मिटी हूँ और कुछ खुद मैं लिखी हूँ|

तुम्हारी मोहब्बत का सूरज अभी तक सिमटा नहीं,
कुछ तुममें रोशन हूँ और कुछ खुद के अँधेरे में हूँ|

स्याह रातों में रोशन है अब भी तेरी यादों के चिराग,
कुछ उनमें जलती हूँ और कुछ बुझी-बुझी सी हूँ|

..........................................................तरुणा||

Saturday, November 17, 2012

ठहर जाती मैं....


अब शिकायत है तुम्हें...मुझसे गिला क्यूँ कर है?
आवाज़ दे के पुकार लेते मुझे...तो ठहर जाती मैं|

मैं तुम्हारी ही थी...दिलों जाँ से..रूह की हद तक,
मेरे वजूद को अपना लेते........तो ठहर जाती मैं|

जब तलक साथ थे..नज़र भर के भी न देखा तुमने,
आँसू एक बिछड़ने पे गिरा देते....तो ठहर जाती मैं|

कद्र एक हमने ही इस दुनिया में...पहचानी थी तेरी,
मेरी खामोशियों को जो सुन लेते..तो ठहर जाती मैं|


दिल के टुकड़े-टुकड़े किए......मुझको बिखेरा तुमने,
समेट निगाहों से भी जो देते......तो ठहर जाती मैं|

तुम बहुत देर से लौटे हो....लेने हमारी खोजोखबर,
मरते वक़्त हाथ पकड़ लेते........तो ठहर जाती मैं||
..........................................तो ठहर जाती मैं||

........................................................तरुणा||

Friday, November 16, 2012

क्या यही प्यार है?


आज अचानक उनका वो प्रश्न......
दिल को कहीं झकझोर गया|
किस सादगी से पूछा था उन्होने
मुझे अंदर तक झिझोड़ गया||

तुम अब तक मिली मुझसे हो
फिर प्यार क्यूँ इतना करती हो?
चेहरा देखोगी रूबरू जब तुम..
क्या पसंद करोगी इतना ही......
मैं तब भी तेरे दिल के आँगन में
क्या टहल करूँगा ऐसे ही??

मैं कैसे कहूँ...मैं कैसे लिखूं
मैं देखूँ तुम्हें या देखूँ...
जानती हूँ मैं फिर भी तुम्हें
कुछ चेहरे ऐसे होते हैं
जिन्हें पहचान की ज़रूरत नही
हम मिलें तुम्हें कभी या मिलें
उस एक मुलाक़ात की भी ज़रूरत नही
हर पल..हर घड़ी..हर वक़्त..हर रोज़
मैं तो तुमसे मिलती ही हूँ......

क्या हुआ जो जिस्म सुंदर हो
मुझे ऐसी खूबसूरती की चाह नही
जानती हूँ मैं बस एक बात यही
गर तन सुंदर मन बेनूर हो तो
वो महबूब मेरा हो सकता नही...
जिस तन में तुमसा मन रोशन हो
वो जिस्म अंधेरा हो सकता नही.......
वो जिस्म..............हो सकता नही...
........................................तरुणा||

Monday, November 12, 2012

दीपावली


आओ इस बार......
कुछ इस तरह से दीपावली को मनाए|
कम से कम कुछ दिलों मे तो दिए जलाए||
लाखों के पटाखें अब तक फोड़ दिए हैं हमने
किसी झोपड़ी मे इस बार कुछ पटाखें दे आए|
आओ इस बार...................
नही है जगह अलमारियों में कपड़े रखने को
इस बार किसी ग़रीब के तन ही को ढक जाए|
आओ इस बार....................
बिजलियों से रोशन हैं हमारे घरों की दरोंदीवारें
किसी लाचार की जिंदगी को तो रोशन कर जाए|
आओ इस बार......................
लाखों तड़प के मरते हैं सड़कों-हस्पतालों में हररोज़  
काश.......हम किसी एक की जिंदगी तो बचा पाए|
आओ इस बार..........................
गुनाह तो कर चुके है इतने हिसाब है न कोई
अब जीते जी कोई एक, सबाब तो कर पाए|
आओ इस बार.............................
खुदा ने दी हैं हज़ारों नेमते तो बने न खुद,खुदा
कम से कम एक इंसान की जिंदगी तो जी पाए||
आओ....इस बार कुछ इस तरह दीपावली मनाए||
आओ इस बार...........................
.................................................तरुणा||

Saturday, November 10, 2012

स्पर्श


उफफफफ्फ़..........
ये कौन किसका हाथ है?
नींद से चौंक उठ बैठी हूँ मैं 
कोई भी नही है पास मेरे
फिर भी है ये कैसा एहसास
किसका स्पर्श है ये जिसने
मेरे जिस्मोजां में स्पंदन किया है
जिसकी छुअन से दौड़ती है रग-रग में बिजली
मीठा-मीठा जहर सा बहता है जिस्म में
है बहुत दूर, बहुत दूर...
वो अजनबी मुझसे..........
फिर क्यूँ उसकी धड़कन कानों में गूँजती है 
सरसराती हुई आती है उसकी आवाज़ 
ये मेरा नाम फिर क्यूँ है पुकारा,उसने
जब से आया है मेरी बेरंग जिंदगी में
एक घड़ी चैन से मैं न कभी सोई हूँ
रात-रात भर तड़पाती है उसकी वो छुअन
जो बहुत दूर से उसने मुझे पहुँचाई है
आए हुए कुछ दिन ही हुए है उसको
क्यूँ लगता है कि युगों से जानती हूँ मैं
और वो हाथ बढ़ाकर अक़सर 
क्यूँ मेरी रातों को तपाया करता है?
मैं अब फिर से सो नहीं पाऊँगी
कई रातों से जागी हूँ मैं ,बता दो उसको
यूँ मेरी नींद में आके जगाया न करे
क्यूँ मेरी रातों को तनहा, वो कर देता है
आना है तो फिर आ जाए, हमेशा के लिए 
जिंदगी भर जागूंगी मैं , फिर उसके लिए|
सिर्फ़ उसके लिए..............................
...................................................तरुणा||
   

Friday, November 9, 2012

पुकार


आज हर तरफ़ इतना सन्नाटा क्यूँ है?
क्या धड़कनों ने मेरी तुमको पुकारा नही है|
ये मत कहना कि व्यस्त हूँ दुनिया के झमेलों में
क्या आज मेरी ओर कोई भी नज़ारा नही है|
क्या मेरी बातों ने तुझको संवारा नही है||

क्यूँ आलम में है आज अजब सी तनहाई
क्या दिल को तेरे,एक याद भी न आई|
दूर हो जाओ जहाँ के हर एक मेले से
मेरी मोहब्बत ने ली है फिर अंगड़ाई|
क्या सांसो ने मेरी तुम्हें आवाज़ न लगाई||

यूँ तो रहते है दिन भर आप चुपचाप
ख़्याल ही बस मेरे,करते है तुमसे बात|
पिसती हूँ हर बार मैं ही तो,इस रेले में
अब न जाने क्यूँ न बरदाश्त है ये रुसवाई|
क्या मेरे दिल को छूना तुझे गवारा नही है|

या मेरी रूह ने अब भी तुझे पुकारा नही है||
.......................................................तरुणा||

Thursday, November 8, 2012

मौत


उस एक रात में कई बार मरी हूँ मैं|

सन्नाटा फ़ैला था चारो ओर तुम्हारे न होने से
पूरे आलम में एक अज़ब सी बेचैनी थी
मुझको जमाने की निगाहों से बचाया था क्यूँ
मेरे वजूद पर छाई थी  बदहवासी सी 
अब जैसे दुनयावी आँखों की किरकिरी हूँ मैं|
उस एक रात में कई बार मरी हूँ मैं||

हम तो पहले ही अकेले थे न शिकवा था कोई
तुमने इन बुझते चरागों में रोशनी क्यूँ की?
तोड़ के जाना ही था जब मेरे ख़्वाबों का महल
दरोदीवार में रोगन की चाँदनी क्यूँ की???
इस अहसास से बार-बार मरी हूँ मैं|
उस एक रात कई बार मरी हूँ मैं||

मेरी ख़ामोशियों में क्यूँ आवाज़ें भर दीं
टूटे नगमों को फिर साज़ पे गाया था क्यूँ?
मेरे पन्नों की तो उड़ती थी फटी सी चिंदीयां   
उसे गुलदान में दिल के सज़ाया था क्यूँ?
टूटे किरचों में गुलदान के वहीं बिखरी हूँ मैं|
उस एक रात में कई बार मरी हूँ मैं||  
......................................................तरुणा||

Wednesday, November 7, 2012

इलाज़

हम तुम हो इतने पास कि
दरमियाँ हवा ना हो,
आए जो कभी मौत भी
तो हम जुदा ना हो|

जन्नत में भी ना जाऊंगी
मैं, बिन तेरे बगैर,
दोजख है वो जन्नत
अगर, तू वहाँ ना हो|

आवाज़ दे कही से तू
खिंची आऊँगी सनम,
तन्हा है वो महफ़िल
जहाँ तेरी सदा ना हो|

मौत तो खैर क्या है
ठुकरा दूं जिंदगी को मैं,
जाऊंगी ना अब कही भी
जो तेरी रज़ा ना हो|

मुमकिन है मेरे दर्द का
बस एक ही इलाज़,
तू पास हो मेरे कोई
दूजी दवा ना हो|
कोई दूजी दवा ना हो||......तरुणा||

नसीब


तुम जो होते मेरी दुनिया में, बहुत पास मेरे,

सारे गुलशन के रंगीं फूलों से, सज़ा कर रखती|


कहीं लग न जायें नज़र कभी , इनकी तुमको,


इस जहाँ के हर हसीं नज़ारों से, छुपा कर रखती|


देख कर रश्क हो न जायें कही, किस्मत को,


अपनी इन कजरारी आँखों में ,बसा कर रखती|



डरती हूँ, तुम मेरे नसीब में हो, या कि नही,



तुम को इस दिल में,खुदा से भी, बचा कर रखती|



............................................................तरुणा||