Monday, December 31, 2012

उपकार तुम्हारा.....



नही भूलूंगी कभी...मैं...
जो दिया हैं...तुमने मुझको...
क्या-क्या नही दिया......
मेरे अधरों को सिखाया....मुस्क़ाना....
धड़कनों को....गीत गाना...
ज़िस्म की थिरकन.....और...
ये अनंत यौवन....भी...
देन हैं....तुम्हारी....तुम्हारे प्यार की....
सांसो की महक भी.....
चाल की लचक भी....
ये नज़ाक़त...नफ़ासत....ख़ुश्बू...
महसूस की हैं....तुमसे ही....

क्या हुआ जो...साथ-साथ....
दर्द भी किया....मेरे नाम....
दी कुछ....तड़प....कुछ क़सक..भी....
प्यार का हर रूप.....तो दिया....
जब बरसाए फूल....तो न क़ी....
शिक़ायत...कोई मैने.....
अब..काँटे हैं...तो भी शिक़वा क्यूँ हो..???
जब मिल के गाए थे...सुरीले नगमे....
तो अब अश्क़ो से...परहेज़ क्यूँ हो...???
मैं...कृतज्ञ  हूँ....तुम्हारी...
प्यार का हर भाव...हर रूप.....
सिखाया है....दिया है...तुमने मुझे....
और मैं...रहूँगी...चिर कृतज्ञ.....
भूलूंगी न उपकार तुम्हारा....
एहसान तुम्हारा.....प्यार तुम्हारा....
कभी भी....कहीं भी.....
.....................................तरुणा|| 

Sunday, December 23, 2012

सिर्फ़ एक वादा.....


उस 5 वर्ष की बच्ची का...प्रश्न...
ये रेप क्या होता है...आंटी...
स्तब्ध रह गयी मैं....
भौचक्की सी....सोचती रही...
क्या बताऊँ इसे...क्या कहूँ....
क़ि क्या होता है...ये बलात्कार...
कैसे बताऊँ क़ि...सदियों से नारी...
झेलती रहीं हैं.....इस अभिशाप को....
हर रोज़...लाखों घरों में होता है..ये...
अपने ही पतियों के हाथों...रात के अंधेरें में...
शर्मसार होती हैं...मासूम बच्चियाँ..रिश्तेदारों के हाथों..

कैसे बताऊँ क़ि बहुत जल्द...समझ जाएँगी..
तू....इन बातों का मतलब...
जब कच्ची उम्र में ही...घर से निकलने पर..
सुनने पड़ेंगें..वो फ़िकरे...सड़कों...चौराहों में...
वो कुत्सित विचार...वो तीखी...घृणित निगाहें...
जब बार-बार छलनी करेंगी...तेरे ज़िस्म को...
जब अनचाहे स्पर्शों से....भीड़ में.. 
दो-चार...होना पड़ेगा तुझको...
और समय से पहले ही भूल जाएँगी...तू..
अपने मासूम बचपन को....
न चाहते हुए भी...होना पड़ेगा जवान...
बचाना पड़ेगा...खुद को...इस दुनिया से...
कैसे बताऊँ क़ि हर स्त्री...झेलती हैं ये...
बिना किसी कुसूर के...जुर्म के...

क्या आश्वस्त कर पाऊँगी...उसको...
क़ि तू नहीं..झेलेगी ये त्रासदी...
नही होगी दो-चार...इस सबसे...
मिलेगा तुझे एक भयमुक्त समाज़....
जहाँ जी पाएगी तू....अपने बचपन को...
निडर....निर्भीक....
नही होगी..जवान तू...समय से पहले...
नही जानना पड़ेगा...अर्थ....
छेड़छाड़...बलात्कार का....
क्या दे पाओगे..ये वातावरण..आप उसको..
कर पाओगे...ये वादा...
आज परचम उठा रहें हो... 
लड़ रहें हो...इक दामिनी के लिए...
पर स्वयं से....क्या कर पाओगे ये वादा...
क्या...सिर्फ़ इक वादा...??????
................................................तरुणा||

Wednesday, December 19, 2012

कविताएँ तीन....घटना एक....


निशान......

क्या होगा उसका....
भूल पाएगी कभी...वो..
अपने साथ बीते उस घृणित  हादसे को....
उस...अमानवीय घटना को...
मानवता को शर्मसार..करती उस वेदना को....
जिस्मानी घाव शायद....भर पाए...
आज नहीं....तो कल...
पर उन मानसिक चोटों से...क्या पाएगी वो निकल..
उबर पाएगी वो उस हादसे से.....
क्या था जुर्म...क्या कुसूर था उसका...
क्यूँ स्त्री होने की....पाई है सज़ा....
एक यही तो थी उसकी खता..
क्या भरेंगे कभी ये ज़ख्म...
मिटेंगे ये घाव...ये निशान...
क्या कभी भी.....   



पुनरावृत्ति.......

क्यूँ होती हैं हम...औरतें ही...
इस दुश्क्रत्य का शिक़ार...
जब...जहाँ...जो चाहे...क्या..
कर सकता है...बलात्कार....
टटोलना होगा हम...माओं को....
अपने-अपने सीनों को....
यहीं संस्कार दे रहें हैं....क्या..
इस देश के भावी नगीनों को....
कांपती नहीं...क्या रूह उनकी....
आत्मा..नही धिक्कारती....
उस स्त्री के चेहरे में...एक बार भी...
क्या अपनी...माँ...बहन...बेटी नहीं पुकारती...
मनुष्य क्या...राक्षस भी शर्मा रहें होंगे...
इस हवस की पराकाष्ठा से....
करती हूँ.....आवाहन उन माओं का...
मत लज़ाओं...अपनी कोख को.....
पुरूषों को नही..पैदा किया हैं..दरिंदों को...
बन जाओ फिर से..'Mother India'..
और स्वयं मिटा डालो इन नर-पिशाचों को...
रोक लो इस पुनरावृत्ति  को...
अपने ही बेटों की...इस दुश्वृत्ति को...
मिटा दो इस कलंक को.....


खबर....

चढ़ा दो सूली.....इन भेड़ियों को...
सबके आगे....सरेशाम.....
ये भावना...ये विचार आज...
जन-जन तक आंदोलित है...
पर क्या जीवित रख पाएँगे...हम इस क्रोध को..
अपने भीतर उमड़ते इस...आक्रोश को....
या नया अख़बार मिलते ही.....
पुरानी बासी ख़बर की तरह.....
इस हादसे को भूल जाएँगे...
फिर किसी नई...ख़बर पर....
चटखारे लगायेंगे......
अपने बच्चों क्या देंगे अच्छे संस्कार भी..
या दुनिया की खबरों पर करते रहेंगे विचार ही...
उबलता रहेगा...हमारा खून यूँ ही....
या बन के रह जाएँगे...बस एक मूक दर्शक ही...
सिर्फ़ एक मूक दर्शक.....

.....................................................तरुणा||

Monday, December 17, 2012

उड़ान....


कौन रोक पाया है परिंदे को...
विशाल अंतरिक्ष की ऊँचाइयाँ...नापने से...
उड़ान जो...एक छोर से दूसरे छोर तक....
फैली है....निर्बाध....स्वच्छन्द...
और वो खुश है...अपनी स्वच्छंदता में...
धरा को क्या हक़..क्या अधिकार...
क्यूँ बने बाधक...उसकी उड़ान में...
उड़ो...तय करो आसमान की सरहदों को...
कोई सीमा नहीं....कोई रोक नही....
हाँ....बस जब जाओ थक...
अपनी इन बेलगाम उड़ानों से...
काँपने लगें परवाज़ तुम्हारें....
जी चाहे सहारा लेने को....
तो आ जाना...मेरे पास...
मैं फ़ैलाएँ हूँ आज भी...अपनी बाँहें...
कर रहीं हूँ...इंतज़ार तुम्हारा...
लौटोगें तो तुम..ज़रूर एक दिन....
जब तुम तय करोगे..स्वयं...
अपनी सीमा...अपना दायरा...
और मैं खड़ी हूँ...प्रतीक्षा में....
तुम्हारे उस विश्राम को...
सहारा देने के लिए...
आ जाओ....शांति की खोज में...
विश्रान्ति को पाने के लिए....
आ जाओ......
..........................तरुणा||

Wednesday, December 12, 2012

तुम्हारा संगीत.....


वक़्त बीता भी नही था...ज़रा सा...तुम आ गये..
आ गये फिर से तुम पास....बहुत पास मेरे....
मेरी नस-नस को सुनाने...गीत कोई....
नई लय...ताल से बद्ध.....संगीत कोई...
हर वक़्त वो मोहब्बत भरे.....सुरीले नग्में...
क्यूँ गुनगुनाते हो कानों में...नशीले नग्में...
हर वक़्त दौड़तें हैं...रगों में.....
शहनाई बजाते हुए...वही गीत...
चाहती हूँ कि सुनू....मैं भी....
तेरी साँसों का लरजता संगीत....
राग और ताल से लयबद्ध वो...मधुर सप्तक...
जिसको सुन....तेरी बाँहों में सो जाऊँ..थककर...
वो तरंगें...वो तराने....वो मौसीक़ी...की झलक...
मुझको पाने को बेताब....तेरी साँसों की महक...
बार-बार मुझको....छू-छू के चली जाती हैं...
तेरे नग्मों की सदा...मुझको भी तड़पाती हैं...
कैसे रोकूँ....मैं अपनी मचलती धड़कन....
गुनगुनाते हुए जिस्म की...अनछुई सिहरन...
लगता है अब न इसे....दूर मैं कर पाऊँगी...
तेरे संगीत की लहरों मे...मैं भी बह जाऊंगी...
मैं भी बह जाऊंगी......
..................................................तरुणा||

Monday, December 10, 2012

मेरा छोटा सा आकाश....


कौन तय कर पाया है?????
आसमानों की सरहदों को....
न मुझ जैसी धरा...न कोई चाँद सितारा...
फैला है....तुम्हारा वज़ूद.....
न जाने...कहाँ कहाँ तक...
न मैं जान पाई हूँ..न कोई और..
तुम्हारा विस्तार है...अनंत तक..
न कोई ओर है...न छोर...
तुम हो अनंत..शाश्वत और विस्तृत...
मैं एक बहुत छोटी सी धरा...
चाहा नहीं की नापू कभी..तुम्हारे..
विस्तार को....दामन को...
मैं तो बस खुश हूँ..अपने हिस्से का..
आकाश पा कर.....
और...सच कहूँ....तो वही हैं..
मेरे लिए पूरा विस्तार...पूरा आकाश..
जो मुझको ढक लेता है...
पूरा का पूरा...अपने दामन में..
समेट लेता है..अपनी बाँहो में..
मेरी गहराइयों को....
और मैं...उस टुकड़े-टुकड़े आकाश को ही...
बस...मानती हूँ....जानती हूँ....
पूरा अंतरिक्ष विशाल..न मेरा था कभी..
तुम समेटों चाहे..हज़ारों मुझसी धराओं को..
अपने अंदर...अपनी विशालता में...
मुझे तो मिल गया है.....
मेरा विस्तार...मेरा आसमान...मेरा आकाश..
बस...वही है मेरा...सिर्फ़ मेरा...
..........................................तरुणा||



Saturday, December 8, 2012

तुम्हारा शहर.....


मैं निकली हूँ...एक मदमाते सफ़र में...
मचलती..तड़पती..गुंजाती..डगर में...
तुम से मिलने की...बेचैनी है ये...
या अपनी किसी तमन्ना का हुज़ूम...
समझ न पाई हूँ..इसको...
पर दिल तो रहा है..मेरा झूम..

सूखे खेतों मे भी हरियाली है लगती...
कड़ी धूप भी...ठंडी छाँव में बदली...
हर जर्रा..अब रंगीन हो चला है...
ये किसकी डगर पे मेरा मन चला है...
बड़ी दूर से तेरी ख़ुश्बू...आने लगी है..
मुझको ये अब मदमाने लगी है...
ये कुछ पल की तड़प है..या जन्मों की है प्यास..
सारा माहौल बदल रहा है..अनायास...
जैसे-जैसे ये दूरी घटने लगी हैं...
नई प्यास दिल मे जगने लगी है..

तुम्हारा शहर अब अपना सा है लगता..
कि जैसे मेरा मन..यहीं तो था बसता..
वो सड़कें लगती हैं...तुम्हारी है बाँहे..
समेटें हैं मुझको तुम्हारी ही राहें..
ये ऊँचे मकां..जैसे लंबा क़द तुम्हारा...
हर ओर है..बस तेरा ही नज़ारा...
वो रास्ते के पुलों के खंभें..मुझको यूँ दिखते...
जैसे तुम लंबे डग भर आ..मुझसे हो मिलते..

वो यहाँ की हरियाली...मुलायम घास..
जैसे तुम आ गये हो और...पास..
ये घने बाग...वो बगीचे...
जैसे फैले हो...तेरे घर के दरीचे...
वो बाज़ारों की रौनके..वो गलियों की चहल-पहल...
जैसे तेरी महफ़िल में...फनक़ारों की टहल...
जो बीच में..एक नदी सी हैं...बहती..
सीधे मेरे दिल पे जा निकलती....

आई थी पहले भी...तुम्हारे इस शहर में..
पर ऐसी हंसी वादियाँ न थी...इसके मंज़र में..
सफ़र ये जैसे जैसे...हो रहा है ख़त्म...
पास आते जा रहे हैं..तुम और हम...
हर गली-कूचे...नुक्कड़...चौबारे से बात हुई..
बस दीदार हुआ न तेरा..न तुझसे मुलाक़ात हुई..
मैं आज तुम्हारे शहर से...कुछ इस क़दर गुज़री...
कि गुज़र रही थी...मैं कहीं..बस तुमसे ही...
बस तुमसे ही.....सिर्फ़ तुमसे ही...
सिर्फ़ तुमसे......
.....................................................तरुणा||     

Thursday, December 6, 2012

तुम ही....


आज फिर पहुँच गई वहीं....
कार उठा के अपनी.....
जहाँ मिले थे हम..एक बार यूँ ही...
पता था मुझे कि....
तुम होगे वहाँ नही.....
फिर भी न जाने क्यूँ पर..पहुँची वहीं...

पर वहाँ तो....तुम थे मौज़ूद...
हर चीज़...हर जर्रे में...हर दिशाओं...हर सू...में
हवाओं में तुम्हारी मादक ख़ुश्बू थी...
शाम में तुम्हारी....अंगड़ाईयाँ..
सूरज की लालिमा में भी थे तुम...
कुहासों में थी तुम्हारी....परछाईयाँ...

पत्तों की सरसराहट में...
लगती थी...तुम्हारी आवाज़...
सोचा था.... न होगे वहाँ तो...
दिल को दिला दूँगी...विश्वास..
जहाँ-जहाँ तक नज़र पहुँची...मेरी..
दिखते रहे बस....तुम ही तुम...
तुम को ही....जीती रही मैं बस...
खड़ी..खड़ी...यूँ ही..गुमसुम...
   
चले तो गये हो....बहुत दूर...
मेरी जिंदगी से तुम...
पर अब क्या...किससे...कैसे कहूँ???
जब दिखते हो...हर जगह...तुम ही...
बस तुम ही....सिर्फ़ तुम ही...
एक तुम ही............
.....................................तरुणा||

Tuesday, December 4, 2012

मेरे शब्द....


कल रात...फिर वही हुआ..
जो हो रहा है...कई रातों से..
सो जाता है..जब जग सारा..
तुम आ जाते हो...बातों बातों में..

कहाँ छुपी थी मुझमें...
वो ढेरों बातें....
वो अनकही सी मुलाक़ातें..
कहाँ था....भावनाओं का ज्वार....
वो उफनता...मचलता प्यार...

मैं कितनी...निशब्द थी...
कितनी अनसुनी थी...
न अपने ख़्वाबों की चादर...
कभी मैने बुनी थी...
मैं....सदियों से चुप थी...
कहीं अपने अंदर ही..गुम थी..

अब कितने रंग छलकनें लगें हैं...
मेरे जज्बातों को शब्द..मिलने लगें हैं...
रोज़ नये-नये भाव....
मन मे गुन्जित हैं होते..
वो चुप्पी...खो गई कहाँ...
थकी थी मैं...जिसे ढोते-ढोते..

एक मूक सी मूरत थी..मैं...
अब...वाचाल हो गई हूँ....
मैं...कितनी मुखर...
कितनी चंचल...हो गई हूँ..
अब ढेरों शब्द...मुझमे...
उमड़ने लगें हैं.....
मन के सारे तार...तुमसे...
जुड़ने लगें हैं.....

मेरे शब्दों को मिल गई हैं..
अब कविता....
मैं थी एक...बेजान बुत..
भर गई है...जिसमे...
जीवंतता....
....................तरुणा||   

Sunday, December 2, 2012

मेरा लहू....


मेरे हाथों में हैं ये क्या????
ये नही है...कोई रंग लगा....
लाल-लाल.......लहू सा....
ये सच में मेरा खून है....
जो बहा है....मेरे जिस्म से...
बार-बार......लगातार....
क्यूँकि.....आज फिर....
अपना क़त्ल कर दिया मैने...
कर दिया खून....अपने वजूद का...
मुझमें तेरे होने के.....हर सुबूत का...
हर रोज़.....क़त्ल करती हूँ मैं....
अपनी रूह को फ़ना...करती हूँ मैं..
रोज़ अपना लहू बहाती हूँ...
तुझको....अपने जिस्म से छुड़ाती हूँ...
फिर भी तुम रोज़.... जाते हो..
मुझको बहका के....मुझमें समाने...
बहते रहते हो.....मेरी रगों में हर घड़ी..
फिर वही काम....मैं दोहराती हूँ...
क़त्ल करती हूँ खुद ही....
खुद ही मरी जाती हूँ...
जाने कितना लहू बहाया है...
फिर भी... मैं मर नही पाई हूँ...
मेरे हाथों से रंग ये...उतरा हैं...
क्यूँकि....तू मुझमें अभी भी जिंदा हैं....
क़त्ल करती रहूंगी....बार-बार....
जब तक मरूँगी मैं....एक बार...
जाने वो दिन कब आएगा????
जब तू मुझसे जुदा हो जाएगा....
क्या मेरा लहू रंग लाएगा???
क्या?????????
...............................तरुणा||