भले
उनको हो आदत बेहिसी की...
हमारी
तो है फ़ितरत बंदगी की ;
.
गुज़रती
हूँ मैं जब उनकी गली से..
मुझे
मिलती है आहट ज़िंदगी की ;
.
सितम
पर वो सितम ढाते हैं ऐसे...
कि
हद जैसे हुई बेगानगी की ;
.
मुलाक़ातें
नहीं अब काम आयें..
हुई
है इन्तिहाँ यूँ बेरुखी की ;
.
हज़ारों
रास्तों पर ढूंढ आए...
कोई
आहट नहीं मिलती ख़ुशी की ;
.
नुमाइश
का ज़माना है ये माना...
रविश
क्यूँ छोड़ दूँ मैं सादगी की ;
.
यही
इक बात तो बदली नहीं है...
ज़रुरत
मौत को है ज़िंदगी की ;
.
उन्हें
जो देख लूं क़ाबू कहाँ फिर...
अजब
होती है हालत बेकली की ;
.
नहीं
सुलझी गिरह रिश्ते की ‘तरुणा’..
वगरना
क्या वजह पेचीदगी की ..!!
...........................................'तरुणा'...!!!
2 comments:
बढ़िया ग़ज़ल।
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