Wednesday, April 13, 2016

मुस्कुराती ग़ज़ल...!!!


मेरे ख़्वाबों से चल कर जब कभी महफ़िल में आती है ..
कहाँ थी ये ख़बर मुझको ग़ज़ल भी मुस्कुराती है ;
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यही दस्तूर दुनिया का भलों को ही दबाती है ..
अगर रुतबा हुआ ऊँचा बुरों का तो निभाती है ;
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हमेशा हादसों की क़ैद में रहती है बेचारी...
रिहाई तो नहीं पर ज़िंदगानी छटपटाती है ;
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ज़माने की निग़ाहों ने ये देखा है करिश्मा भी..
जो कल मसली गई थी वो कली फिर खिलखिलाती है ;
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कोई शिकवा करूँ कैसे बताओ ज़िन्दगानी से...
मेरी ही सोच जीने के नए नक़्शे बनाती है ;
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मुहब्बत एक धोखा है नहीं होती तो बेहतर था ...
सराबों की तरह ख़्वाबों को ये दिन में दिखाती है ;
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चलो इक बार फिर मासूम बच्चों से ही बन जायें....
हमारी उम्र तो मासूमियत से मात खाती है ;
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मुहब्बत मैंने अपनी जाने किसके नाम लिख दी है..
गुज़रते वक़्त के हमराह ये बढ़ती ही जाती है ;
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रदीफ़ों क़ाफ़ियों के बीच में उलझी रही तरुणा’..
कहानी प्यार की फिर भी ग़ज़ल उसकी सुनाती है ..!!
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..................................................................'तरुणा'...!!!


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