मेरे ख़्वाबों से चल कर जब कभी
महफ़िल में आती है ..
कहाँ थी ये ख़बर मुझको ग़ज़ल भी
मुस्कुराती है ;
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यही दस्तूर दुनिया का भलों को ही
दबाती है ..
अगर रुतबा हुआ ऊँचा बुरों का तो
निभाती है ;
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हमेशा हादसों की क़ैद में रहती है
बेचारी...
रिहाई तो नहीं पर ज़िंदगानी
छटपटाती है ;
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ज़माने की निग़ाहों ने ये देखा है
करिश्मा भी..
जो कल मसली गई थी वो कली फिर
खिलखिलाती है ;
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कोई शिकवा करूँ कैसे बताओ
ज़िन्दगानी से...
मेरी ही सोच जीने के नए नक़्शे
बनाती है ;
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मुहब्बत एक धोखा है नहीं होती तो
बेहतर था ...
सराबों की तरह ख़्वाबों को ये दिन
में दिखाती है ;
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चलो इक बार फिर मासूम बच्चों से
ही बन जायें....
हमारी उम्र तो मासूमियत से मात
खाती है ;
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मुहब्बत मैंने अपनी जाने किसके
नाम लिख दी है..
गुज़रते वक़्त के हमराह ये बढ़ती ही
जाती है ;
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रदीफ़ों क़ाफ़ियों के बीच में उलझी
रही ‘तरुणा’..
कहानी प्यार की फिर भी ग़ज़ल उसकी
सुनाती है ..!!
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..................................................................'तरुणा'...!!!
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