दिले नाजुक को धड़काया तो होता...
मेरी साँसों को महकाया तो होता ;
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मैं आँखें मूँद के आती जो पीछे...
कभी कुछ ऐसा फ़रमाया तो होता ;
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मैं उड़ कर ही पहुँच जाती वहाँ पर..
मेरे सरकार
बुलवाया तो होता ;
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दिलो की दूरियाँ फिर कम भी
होतीं..
अगर मिलजुल के सुलझाया तो होता ;
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झुलसती धूप की मानिन्द हूँ मैं..
तू ऐसे में घना साया तो होता ;
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सफ़र तय दूर तक करके मैं आती..
मुझे कुछ देर भटकाया तो होता ;
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तुझे यकलख़त खुद को सौंप देती...
ज़रा दामन को फैलाया तो होता...!!
(यकलख़त-पूर्णतया/
entirely)
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...........................................'तरुणा' ..!!!
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