कभी संभलती रही और .. कभी मैं गिरती रही...
यूँ दौरे-ज़िंदगी से ...... रोज़ ही गुज़रती रही ;
है कौन दुनिया में .... अंजामे-इश्क़ से
नावाकिफ़....
ये जानते हुए भी ... दिल की बात करती रही ;
जिसने चाहा भी नहीं ... ख्व़ाब में कभी मुझको
...
जिंदगी भर क्यूँ मैं .. उस एक पर ही मरती रही ;
मेरे बगैर तो वो शख्स ... बड़े सुकून से था ...
मैं जिसकी फ़िक्र में .. दिन-रात एक करती रही ;
जो मिला मुझको वो तो था ... नसीब मेरा ही ...
क्यूँ किसी गैर पे इल्ज़ाम .. रोज़ धरती रही ;
ये ज़िंदगी का हर लम्हा ... कुछ सिखा के गया ..
ये जान कर 'तरु' अब
.. खुद में ही उतरती रही .!!
......................................................................'तरुणा'...!!!
Kabhi sambhalti rahi aur .... kabhi main girti rahi ..
Yun daure-zindgi se
...... roz hi guzarti rahi ;
Hai kaun duniya me .. anzaam-e-ishq se nawaaqif...
Ye jaante huye bhi
...... dil ki baat karti rahi ;
Jisne chaaha bhi nahi ..... khwaab me kabhi mujhko...
Zindgi bhar kyun main
... us ek par hi marti rahi ;
Mere bagair to wo shakhs ,,, bade sukun se tha ....
Main jiski fikr me ...... din-raat ek karti rahi ;
Jo mila mujhko wo to tha .... naseeb mera hi ...
Kyun kisi gair pe ilzaam ..... roz dharti rahi ;
Ye zindgi ka har lamha ... kuchh sikha ke gaya ...
Ye jaan kar 'Taru' ab .... khud me hi utarti rahi...!!
.................................................................................'Taruna'...!!!
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