चलो फिर आज तुमसे हम बिछड़कर देख
लेते हैं..
कि ये इल्ज़ाम भी हम अपने सर पर
देख लेते हैं ;
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शिक़ायत है तुम्हे आवारगी से गर
हमारी तो..
चलो कुछ दिन तुम्हारे घर ठहरकर
देख लेते हैं ;
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मुहब्बत जह्र है आसां कहाँ हैं
इसको पी लेना....
मगर हमने ये सोचा है कि पीकर देख
लेते हैं ;
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नहीं है तैरना लाज़िम समंदर है ये
चाहत का...
हमें तो डूबना है सो उतरकर देख
लेते हैं ;
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नहीं है खौफ़ ये टुकड़े हमारे दिल
के कर दोगे......
दिखोगे तुम ही तुम ‘तरुणा’ बिखरकर
देख लेते है ..!!
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..............................................................'तरुणा'...!!!
1 comment:
very nice poem
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