वो रहा ग़ैर पर फ़िदा कैसे ..
उससे अब रक्खूँ राब्ता कैसे ;
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रूह को जब नहीं छुआ तो फिर..
प्यार में आएगा मज़ा कैसे ;
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इक मुसाफ़िर था रुक नहीं पाया..
जाम नज़रों से पी लिया कैसे ;
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जिसने मुझको कभी मिटाया था...
आज मुझपर वो मर मिटा कैसे ;
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उसको साबुत कभी नहीं देखा ...
टुकड़े टुकड़े में जी रहा कैसे ;
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पूरी शिद्दत से दिल मेरा तोड़ा ..
एक टुकड़ा ये फिर बचा कैसे ;
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मेरा होके भी वो नहीं मेरा...
उसको पाऊँ जरा जरा कैसे ;
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जो कभी आदमी न बन पाया...
सबको लगता है फिर ख़ुदा कैसे ;
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बागबाँ तो महक का दुश्मन था...
फूल गुलशन में फिर खिला कैसे ;
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मुझसे निस्बत न कोई रिश्ता था...
मेरा बन के वो फिर रहा कैसे ;
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जब मुख़ालिफ़ रही हवा ‘तरुणा’..
फिर ये दीपक भला जला कैसे ..!!
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.....................................'तरुणा'....!!!
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