काँप जाती
थी...तब मैं अक्सर...
कोई देख लेता था
जो...जी भर कर...
डर लगता था उन की
आहों से.....
ऐसी
अंजानी..कंटीली राहोँ से....
बैठ जाती थी
मैं...खुद में छुप कर....
काँप जाती
थी...तब मैं अक्सर....
अब ये आया..कौन
सा हमसाया है....
जिसने बंद दरवाज़ा
ये...खटखटाया है....
डरती मैं क्यूँ
नहीं हूँ...अब इससे....
दिन-रात सुन के
भी...प्यार के किस्से....
बैठती नहीं क्यूँ
अब..द्वार बंद कर.....
काँपती नहीं हूँ
मैं अब...अक्सर....
रोशनी ये
है...किसके चराग की....
भर गई है
महक..किसके पराग की...
छंट गई
धुंध...मेरे भाग्य की....
धूल भी नहीं
है...किसी राख़ की...
ख़ुद से करती हूँ अब...प्यार...
मैं तो ख़ूब...जी
भर कर....
काँपती नहीं हूँ
मैं अब...अक्सर....
मन उड़ा जाता है
अब...और कहीं...
ख़ुद की किस्मत पे
न आए हैं...यकीं...
क्यूँ नए स्वप्न
देखती हूँ..जाकर के वहीँ...
जहाँ रहता है
दिलदार मेरा..घर कर...कर...
महकती रहती हूँ
मैं तो..अब दिन भर-भर...
काँपती नहीं हूँ
मैं...अब अक्सर...
कांपूगी भी नहीं
अब मैं...डर कर.....
.......................................................तरुणा....!!!
5 comments:
अति-सुंदर !!!!!! अपने-पन का, बहुत ही सजीव चित्रण किया है आपने ...... प्रेम-गली अति सांकरी, जा में दो ना समांय !!!! जय श्री राधे-कृष्ण ....
RP Tripathi ji...मैं अत्यंत आभारी हूँ..आपकी...बहुत शुक्रिया...:)
behad khoobsurat kavita
Mahima....bahut bahut shukriya...:)
its beautiful taruna.. !!!
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