मैं निकली हूँ...एक मदमाते सफ़र में...
मचलती..तड़पती..गुंजाती..डगर में...
तुम से मिलने की...बेचैनी है ये...
या अपनी किसी तमन्ना का हुज़ूम...
समझ न पाई हूँ..इसको...
पर दिल तो रहा है..मेरा झूम..
सूखे खेतों मे भी हरियाली है लगती...
कड़ी धूप भी...ठंडी छाँव में बदली...
हर जर्रा..अब रंगीन हो चला है...
ये किसकी डगर पे मेरा मन चला है...
बड़ी दूर से तेरी ख़ुश्बू...आने लगी है..
मुझको ये अब मदमाने लगी है...
ये कुछ पल की तड़प है..या जन्मों की है प्यास..
सारा माहौल बदल रहा है..अनायास...
जैसे-जैसे ये दूरी घटने लगी हैं...
नई प्यास दिल मे जगने लगी है..
तुम्हारा शहर अब अपना सा है लगता..
कि जैसे मेरा मन..यहीं तो था बसता..
वो सड़कें लगती हैं...तुम्हारी है बाँहे..
समेटें हैं मुझको तुम्हारी ही राहें..
ये ऊँचे मकां..जैसे लंबा क़द तुम्हारा...
हर ओर है..बस तेरा ही नज़ारा...
वो रास्ते के पुलों के खंभें..मुझको यूँ दिखते...
जैसे तुम लंबे डग भर आ..मुझसे हो मिलते..
वो यहाँ की हरियाली...मुलायम घास..
जैसे तुम आ गये हो और...पास..
ये घने बाग...वो बगीचे...
जैसे फैले हो...तेरे घर के दरीचे...
वो बाज़ारों की रौनके..वो गलियों की चहल-पहल...
जैसे तेरी महफ़िल में...फनक़ारों की टहल...
जो बीच में..एक नदी सी हैं...बहती..
सीधे मेरे दिल पे जा निकलती....
आई थी पहले भी...तुम्हारे इस शहर में..
पर ऐसी हंसी वादियाँ न थी...इसके मंज़र में..
सफ़र ये जैसे जैसे...हो रहा है ख़त्म...
पास आते जा रहे हैं..तुम और हम...
हर गली-कूचे...नुक्कड़...चौबारे से बात हुई..
बस दीदार हुआ न तेरा..न तुझसे मुलाक़ात हुई..
मैं आज तुम्हारे शहर से...कुछ इस क़दर गुज़री...
कि गुज़र रही थी...मैं कहीं..बस तुमसे ही...
बस तुमसे ही.....सिर्फ़ तुमसे ही...
सिर्फ़ तुमसे......
.....................................................तरुणा||
5 comments:
amazing expression of words..very neatly written..superb
Veena ji....Many thanksss...for you inspiring words....:)
waaah Taruna ji.... ek aur bahut khoobsurat kavita... :)
Mahima....bahut bahut shukriya....:)
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