Monday, December 16, 2013

कब से है.... !!!






















हमको उस बेदर्द का...इंतज़ार कब से है...
राहों में बिछी हुई.... दस्तार कब से है....
(दस्तार-पगड़ी)

मैं मुफ़लिसी में पली...तू चरागां अमीरों का...
हमारे बीच ये ऊंच-नीच की..दीवार कब से है...

रफ़्तार मोहब्बत की रोक सका.. न गम-ए-दौरां भी मेरी..
ये हुस्न-ए-माहताब उसके इश्क़ में...निसार कब से है...

तवील शब को काटती हूँ .... उस एक चांद को देख मैं...
गर्चे...आसमां पे सितारें तो .... बेशुमार कब से हैं......
(तवील-लम्बी...गर्चे-हालाकि)

नाख़ुदा ने छोड़ा है मुझे...तूफ़ान-ए-समंदर में...पर...
गुंज़ाइश बची है अभी..मेरे हाथों में पतवार कब से है..

सिमट सका न फ़ैलाव...ज़िंदगी का तरु' से कभी भी..
वरना जीना तो सबके ही लिए.. दुश्वार कब से हैं.....

.................................................................'तरुणा'....!!!


Hamko us bedard ka.....intzaar kab se hai....
Raahon me bichhi huyi...dastaar kab se hai...
(dastaar-turban)

Main muflisi me pali....too charaagan ameeron ka...
Hamare beech ye oonch-neech ki...deewaar kab se hai..

Raftaar mohabbat ki rok saka na.. gam-e-dauran bhi meri..
Ye husn-E-maahtaab uske ishq me...nisaar kab se hai....

Us ek chaand ko dekh kaat'ti hoon...taveel shab ko main...
Garch-e...aasmaan pe sitaare to...beshumaar kab se hain...
(taveel-long...garch-e---though)

Nakhuda ne chhoda hai mujhe..toofaan-e-samandar me...par..
Gunzaaish bachhi hai abhi...mere haathon me patvaar kab se hai...

Simat saka na failaav... Zindgi ka 'Taru' se kabhi bhi...
Varna jeena to sabke liye...dushvaar kab se hai....

....................................................................................'Taruna'...!!!

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