शहर शहर....गली
गली...
कभी इस नगर...कभी
इस नगर...
कभी
सड़कों...गलियों...चौबारों में...
कभी अपने...और
दूजे द्वारे में...
पर मिलते नहीं
हो...तुम कभी...
न यहाँ..न
वहां....
न किसी पल...न
किसी घड़ी....
ये क्या है...
मेरी कोई अतृप्त
आकांक्षा....
या कोई...अधूरी
ख्वाहिश....
जो ढूंढती फिर
रही हूँ...तुम्हे..हर जगह...
जबकि...तुम कही
और...हो नहीं...
जो देखी हज़ारों
जगहें....वहां छुपे ही नहीं....
बस रहे हो तुम
तो...मुझमे कहीं...
छुप रहे
हो....मेरे दिल में यूँ ही....
और मैं...भटक रही
हूँ...मृगतृष्णा में...
अपने ही अंतस से
आती...ख़ुशबू में....
हैरान हूँ
मैं....परेशान हूँ मैं...
तभी तो
तुम्हें...पाके भी..नहीं पाती...
जीना चाहती हूँ
तुम्हें...पर जी नहीं पाती...
क्यूंकि...ये
मेरी ही मृगतृष्णा है...
जो
तुम्हारे....मुझमे होने के बावज़ूद....
ढूंढती रही
तुम्हें...कहीं बाहर....
जबकि तुम तो सदा
से थे....मेरे ही अंदर...
मेरे ही
अंदर....कहीं गहरें में...पर मेरे ही अंदर...
और मैं...थी
गुम...मृगमरीचिका में...
................................................'तरुणा'.....!!!
4 comments:
बहुत सुन्दर पँक्तियोँ मे सजी हुई भाव अभिव्यक्ति....
Bahut Bahut Shukriya ... Agar apna naam bataatey ... to bahut Achcha lagta ... Khair .. Thankss .. :)))
wow very nice taruna ji.
Bahut bahut Shukriya ... Janak Vegad Jii ... :)))
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