क्या क्या न देखा...अबकि इस आस्था के सफ़र में...
कहीं तूफां में उजड़ते...घर-दरख्त देखे......
कहीं माँ-बाप का हाथ छोड़...बहते बच्चे देखे....
कहीं भूख से....तड़पते मरते...मंज़र देखे.....
इंसानों की बनाई दुनिया...पल में उजड़ती देखी....
बौराई खौफ़नाक प्रकृति की...अभिव्यक्ति देखी...
कहीं अपनों को न बचा पाने की...लाचारी देखी.....
कहीं ईश्वर की आस्था से उठता...विश्वास देखा...
तो कहीं पथराई आँखों में..दम तोड़ती आस देखा...
कहीं इस घड़ी में...आरोपों-प्रत्यारोपों का प्रयास देखा...
हमने पत्थर के ख़ुदा...इंसां में छुपे जानवर देखे.....
लोगों के आंसू पोछतें...इंसां-रुपी ख़ुदा देखें.....
दुआ में उठतें हाथ...तो किसी की दुआ बनते इंसां देखें...
बस नहीं देखना अब...और ये आस्था के नाम का चक्कर...
छोड़ें ये मंदिर मंदिर भटकना...और धर्म का ये सफ़र.....
मन-मंदिर को देखें...और बसायें प्यार का नगर......
शुरू करें अपने ही अंदर...नर से नारायण की यात्रा......
इंसान हैं..पहचानें ख़ुद को..कम करें दुर्गुणों की मात्रा...
स्वयं प्रकाश हैं हम...प्रकाशित है हमारी हर जात्रा......
....................................................................'तरुणा'....!!!
4 comments:
शुरू करें अपने ही अंदर...नर से नारायण की यात्रा......
इंसान हैं..पहचानें ख़ुद को..कम करें दुर्गुणों की मात्रा...
स्वयं प्रकाश हैं हम...प्रकाशित है हvyमारी हर जात्रा......
इस तरह सन्दर्भ से कटकर कविता के एकांगी होने का खतरा हो जाता है. कविता का फ़र्ज़ व्याख्यान करना ही नहीं होता बल्कि हमसे बाहर की भौतिक (स्वयं को अन्दर से पाक साफ़ करने के विपरीत और इसके अलावा) हकीकत को बदलना भी होता है. बाहर को बदलते हुए कविता स्वयं को भी बदल डालती है और इस तरह ज्यादा उन्नत हो जाती है.
आप का स्वागत हे साहित्यकारों की इस वेब साईट में http://www.openbooksonline.com/
Jee haaan.... Jag seer ji aapki baat kaafi had tak sahi hai.... par jab tak ham khud me badlaav nahi laayenge... baahar kuchh bhi nahi badlega.... Shukriya...:)
Aazaad ji... bahut bahut Shukriya... aapka prastaav bahut achcha hai......:)
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